मैंने चाहा है तुम्हें माहरुख*,
क्यों तुम मुझे इतना सताती हो?
क्यों तुम मुझे इतना सताती हो?
मेरी क्या है गलती, बता दो मुझे,
मुझे क्यों तुम बेवजह रुलाती हो?
काश खता पता होती मुझे अपनी, काश कोई बता पाता,
आज कल क्यों तुम खफा-खफा नज़र आती हो?
भुला दो जो भी गिला है मुझसे,
मुझे सजा देने की फ़िराक में क्यों तुम खुद ही को जलाती हो?
कल मैं ना रहूँगा तो मुझे याद कर रोया करोगी,
तो आज क्यों नहीं तुम मुझे देख कर मुस्कुराती हो?
जिंदगी छोटी है और साथ भी, आज है, ना हो कल कहीं,
इतना भी क्यों तुम समझ नहीं पाती हो?
मुझे क्यों तुम बेवजह रुलाती हो?
काश खता पता होती मुझे अपनी, काश कोई बता पाता,
आज कल क्यों तुम खफा-खफा नज़र आती हो?
भुला दो जो भी गिला है मुझसे,
मुझे सजा देने की फ़िराक में क्यों तुम खुद ही को जलाती हो?
कल मैं ना रहूँगा तो मुझे याद कर रोया करोगी,
तो आज क्यों नहीं तुम मुझे देख कर मुस्कुराती हो?
जिंदगी छोटी है और साथ भी, आज है, ना हो कल कहीं,
इतना भी क्यों तुम समझ नहीं पाती हो?
माहरुख*: जिसका चेहरा चाँद सा हो
No comments:
Post a Comment